मंगलवार, 2 नवंबर 2010

किताबें झांकती हैं
बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनो अब मुलाकाते नहीं होती
जो शामे इन की सोबत में कटती थी
अब अक्सर
गुज़र जाती है कंप्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती है किताबें...
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गयी है
बड़ी हसरत से तकती है
जो कदरें वो सुनती थी !
की जिन के 'सैल' कभी मरते नहीं थे
वो कदरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थी
वह सारे उघडे - उघडे हैं
कोई सफहा पलटता हूँ
तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे तुण्ड लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इस्तालाहें हैं
जो मिटटी के सिकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूफ़ कर डाला
जुबां पे जायका आता थो जो
सफ्हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह -ब - खुलता चला जाता है परदे पर
कीताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे,
छूते थे ज़बीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में
मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका अब क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगें
- लेखक गुलज़ार
(रात पश्मीने की