शनिवार, 31 जनवरी 2009

सन् ४७ को याद करते हुए - केदारनाथ सिंह

तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदाननाथ सिंह?
गेहुँए नूर मियाँ
ठिगने नूर मियाँ
रामगढ़ बाजार से सुर्मा बेच कर
सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँ
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?

तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हे याद है शुरु से अखिर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़ घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गए थे नूर मियाँ?
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ हैं
ढाका
या मुल्तान में?
क्या तुम बता सकते हो?
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में?
तुम चुप क्यों हो केदाननाथ सिंह?
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?

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शहर में रात - केदारनाथ सिंह

बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
हैं उलझ गए जीने के सारे धागे
यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ
कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ
इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ
जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें

जंगल की याद मुझे मत दिलाओ - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

कुछ धुआँ

कुछ लपटें

कुछ कोयले

कुछ राख छोड़ता

चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूँ,

मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!
हरे —भरे जंगल की

जिसमें मैं सम्पूर्ण खड़ा था

चिड़ियाँ मुझ पर बैठ चहचहाती थीं

धामिन मुझ से लिपटी रहती थी

और गुलदार उछलकर मुझ पर बैठ जाता था.

जँगल की याद

अब उन कुल्हाड़ियों की याद रह गयी है

जो मुझ पर चली थीं

उन आरों की जिन्होंने

मेरे टुकड़े—टुकड़े किये थे

मेरी सम्पूर्णता मुझसे छीन ली थी !

चूल्हे में

लकड़ी की तरह अब मैं जल रहा हूँ

बिना यह जाने कि जो हाँडी चढ़ी है

उसकी खुदबुद झूठी है

या उससे किसी का पेट भरेगा

आत्मा तृप्त होगी,

बिना यह जाने

कि जो चेहरे मेरे सामने हैं

वे मेरी आँच से

तमतमा रहे हैं

या गुस्से से,

वे मुझे उठा कर् चल पड़ेंगे

या मुझ पर पानी डाल सो जायेंगे.

मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!

एक—एक चिनगारी

झरती पत्तियाँ हैं

जिनसे अब भी मैं चूम लेना चाहता हूँ

इस धरती को

जिसमें मेरी जड़ें थीं!

न होने की गंध

अब कुछ नहीं था
सिर्फ़ हम लौट रहे थे
इतने सारे लोग सिर झुकाए हुए
चुपचाप लौट रहे थे
उसे नदी को सौंपकर
और नदी अंधेरे में भी
लग रही थी पहले से ज्यादा उदार और अपरम्पार
उसके लिए बहना उतना ही सरल था
उतना ही साँवला और परेशान था उसका पानी

और अब हम लौट रहे थे
क्योंकि अब हम खाली थे
सबसे अधिक खाली थे हमारे कन्धे
क्योंकि अब हमने नदी का
कर्ज़ उतार दिया था
न जाने किसके हाथ में एक लालटेन थी
धुंधली-सी
जो चल रही थी आगे-आगे
यों हमें दिख गई बस्ती
यों हम दाखिल हुए फिर से बस्ती में

उस घर के किवाड़
अब भी खुले थे
कुछ नहीं था सिर्फ़ रस्म के मुताबिक
चौखट के पास धीमे-धीमे जल रही थी
थोड़ी-सी आग
और उससे कुछ हटकर
रखा था लोहा
हम बारी-बारी
आग के पास गए और लोहे के पास गए
हमने बारी-बारी झुककर
दोनों को छुआ

यों हम हो गए शुद्ध
यों हम लौट आए
जीवितों की लम्बी उदास बिरादरी में

कुछ नहीं था
सिर्फ़ कच्ची दीवारों
और भीगी खपरैलों से
किसी एक के न होने की
गंध आ रही थी

- केदारनाथ सिंह

अग्निबीज

अग्निबीज
तुमने बोए थे
रमे जूझते,
युग के बहु आयामी
सपनों में, प्रिय
खोए थे!
अग्निबीज
तुमने बोए थे

तब के वे साथी
क्या से क्या हो गए,
कर दिया क्या से क्या तो,
देख-देख
प्रतिरूपी छवियाँ
पहले खीझे
फिर रोए थे
अग्निबीज
तुमने बोए थे

ऋषि की दृष्टि
मिली थी सचमुच
भारतीय आत्मा थे तुम तो
लाभ-लोभ की हीन भावना
पास न फटकी
अपनों की यह ओछी नीयत
प्रतिपल ही
काँटों-सी खटकी
स्वेच्छावश तुम
शरशैया पर लेट गए थे
लेकिन उन पतले होठों पर
मुस्कानों की आभा भी तो
कभी-कभी खेला करती थी!
यही फूल की अभिलाषा थी
निश्चय, तुम तो
इस ‘जन-युग’ के
बोधिसत्व थे,
पारमिता में त्याग तत्व थे।


- नागार्जुन

ग़रीबी

आह, तुम नहीं चाहतीं–

डरी हुई हो तुम

ग़रीबी से

घिसे जूतों में तुम नहीं चाहतीं बाज़ार जाना

नहीं चाहतीं उसी पुरानी पोशाक में वापस लौटना
मेरे प्यार, हमें पसन्द नहीं है,

जिस हाल में धनकुबेर हमें देखना चाहते हैं,

तंगहाली ।

हम इसे उखाड़ फेंकेंगे दुष्ट दाँत की तरह

जो अब तक इंसान के दिल को कुतरता आया है
लेकिन मैं तुम्हें

इससे भयभीत नहीं देखना चाहता ।

अगर मेरी ग़लती से

यह तुम्हारे घर में दाख़िल होती है

अगर ग़रीबी

तुम्हारे सुनहरे जूते परे खींच ले जाती है,

उसे परे न खींचने दो अपनी हँसी

जो मेरी ज़िन्दगी की रोटी है ।

अगर तुम भाड़ा नहीं चुका सकतीं

काम की तलाश में निकल पड़ो

गरबीले डग भरती,

और याद रखो, मेरे प्यार, कि

मैं तुम्हारी निगरानी पर हूँ

और इकट्ठे हम

सबसे बड़ी दौलत हैं

धरती पर जो शायद ही कभी

इकट्ठा की जा पाई हो ।

(रचनाकार: पाब्लो नेरूदा अनुवादक: सुरेश सलिल)

अगर तुम जीवित नहीं रहती हो

अगर अचानक तुम कूच कर जाती हो

अगर अचानक तुम जीवित नहीं रहती हो

मैं जीता रहूंगा ।
मुझ में साहस नहीं है

मुझ में साहस नहीं है लिखने का

कि अगर तुम मर जाती हो ।
मैं जीता रहूंगा ।
क्योंकि जहाँ किसी आदमी की कोई आवाज़ नहीं है

वहाँ मेरी आवाज़ है ।
जहाँ अश्वेतों पर प्रहार होते हों

मैं मरा हुआ नहीं हो सकता ।

जहाँ मेरे बिरादरान जेल जा रहे हों

मैं उनके साथ जाऊंगा ।
अब जीत

मेरी जीत नहीं,

बल्कि महान जीत

हासिल हो,
भले मैं गूंगा होऊँ, मुझे बोलना ही है :

देखूंगा मैं उसका आना, भले मैं अन्धा होऊँ ।
नहीं मुझे माफ़ कर देना

अगर तुम जीवित नहीं रहती हो

अगर तुम, प्रियतमे, मेरे प्यार, अगर…

अगर तुम मर चुकी हो

सारे के सारे पत्ते मेरे सीने पर गिरेंगे

धारासार बारिश मेरी आत्मा पर होगी रात-दिन

बर्फ़ मेरा दिल दागेगी

मैं शीत और आग और मृत्यु और बर्फ़ के साथ चलूंगा

मेरे पैर, तुम जहाँ सोई हो, उस रुख कूच करना चाहेंगे,

लेकिन मैं जीता रहूंगा

क्योंकि तुम, सब कुछ से ऊपर, मुझे अदम्य देखना चाहती थीं

और क्योंकि, मेरे प्यार, तुम्हें पता है

मैं महज एक आदमी नहीं, बल्कि समूची आदमज़ात हूँ ।

(रचनाकार: पाब्लो नेरूदा अनुवादक: सुरेश सलिल)

स्त्री देह

स्त्री देह, सफ़ेद पहाड़ियाँ, उजली रानें
तुम बिल्कुल वैसी दिखती हो जैसी यह दुनिया
समर्पण में लेटी–
मेरी रूखी किसान देह धँसती है तुममें
और धरती की गहराई से लेती एक वंशवृक्षी उछाल ।
अकेला था मैं एक सुरंग की तरह, पक्षी भरते उड़ान मुझ में
रात मुझे जलमग्न कर देती अपने परास्त कर देने वाले हमले से
ख़ुद को बचाने के वास्ते एक हथियार की तरह गढ़ा मैंने तुम्हें,
एक तीर की तरह मेरे धनुष में, एक पत्थर जैसे गुलेल में
गिरता है प्रतिशोध का समय लेकिन, और मैं तुझे प्यार करता हूँ
चिकनी हरी काई की रपटीली त्वचा का, यह ठोस बेचैन जिस्म दुहता हूँ मैं
ओह ! ये गोलक वक्ष के, ओह ! ये कहीं खोई-सी आँखें,
ओह ! ये गुलाब तरुणाई के, ओह ! तुम्हारी आवाज़ धीमी और उदास !

ओ मेरी प्रिया-देह ! मैं तेरी कृपा में बना रहूंगा
मेरी प्यास, मेरी अन्तहीन इच्छाएँ, ये बदलते हुए राजमार्ग !
उदास नदी-तालों से बहती सतत प्यास और पीछे हो लेती थकान,
और यह असीम पीड़ा !

(रचनाकार: पाब्लो नेरूदा अनुवादक: मधु शर्मा)