शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

तब तुम क्या करोगे?

अरे मूरख
आवाजें उठेंगी
तेग उठे न उठे
मशालें जलेंगी
मत भूल
जिनके हाथों को
तुम खाली करते हो
एक रोज़
ऐसे ही किसी खाली हाथ में
मशाल होगी
वही
खाली पेट रहने वाला शख्स
अपनी एक मशाल से
हजारों संतप्त लोगों को
रास्ता दिखाएगा...
...अपने अधिकारों के लिए
लड़ने वाला रास्ता
उस रोज़
वे
चीखेंगे,
चिल्लाएंगे
और तुमसे पूछेंगे
आखिर
भूखे रहने का वनवास
कब ख़तम होगा?
वही आहत लोग
जिनके पेट
कभी अघाते नहीं
वही जर्ज़र अतृप्त आत्मा
उस रोज़
तुमसे हिसाब मांगेगी
तब तुम क्या करोगे?

- बलजीत सिंह

http://www.swargvibha.in/kavita/all_kavita/tabtum_kyakaroge.html

तब तुम क्या करोगे

यदि तुम्हें ,
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाय
पानी तक न लेने दिया जाय कुएं से
दुत्कारा फटकारा जाय चिल-चिलाती दोपहर में
कहा जाय तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाय खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे ?

 
**
 
यदि तुम्हें ,
मरे जानवर को खींचकर
ले जाने के लिए कहा जाय
और
कहा जाय ढोने को
पूरे परिवार का मैला
पहनने को दी जाय उतरन
तब तुम क्या करोगे ?

 
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यदि तुम्हें ,
पुस्तकों से दूर रखा जाय
जाने नहीं दिया जाय
विद्या मंदिर की चौखट तक
ढिबरी की मंद रोशनी में
काली पुती दीवारों पर
ईसा की तरह टांग दिया जाय
तब तुम क्या करोगे ?

 
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यदि तुम्हें ,
रहने को दिया जाय
फूस का कच्चा घर
वक्त-बे-वक्त फूंक कर जिसे
स्वाहा कर दिया जाय
बर्षा की रातों में
घुटने-घुटने पानी में
सोने को कहा जाय
तब तुम क्या करोगे ?

 
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यदि तुम्हें ,
नदी के तेज बहाव में
उल्टा बहना पड़े
दर्द का दरवाजा खोलकर
भूख से जूझना पड़े
भेजना पड़े नई नवेली दुल्हन को
पहली रात ठाकुर की हवेली
तब तुम क्या करोगे ?

 
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यदि तुम्हें ,
अपने ही देश में नकार दिया जाय
मानकर बंधुआ
छीन लिए जायं अधिकार सभी
जला दी जाय समूची सभ्यता तुम्हारी
नोच-नोच कर
फेंक दिए जाएं
गौरव में इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे
तब तुम क्या करोगे ?

 
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यदि तुम्हें ,
वोट डालने से रोका जाय
कर दिया जाय लहू-लुहान
पीट-पीट कर लोकतंत्र के नाम पर
याद दिलाया जाय जाति का ओछापन
दुर्गन्ध भरा हो जीवन
हाथ में पड़ गये हों छाले
फिर भी कहा जाय
खोदो नदी नाले
तब तुम क्या करोगे ?

 
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यदि तुम्हें ,
सरे आम बेइज्जत किया जाय
छीन ली जाय संपत्ति तुम्हारी
धर्म के नाम पर
कहा जाय बनने को देवदासी
तुम्हारी स्त्रियों को
कराई जाय उनसे वेश्यावृत्ति
तब तुम क्या करोगे ?

 
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साफ सुथरा रंग तुम्हारा
झुलस कर सांवला पड़ जायेगा
खो जायेगा आंखों का सलोनापन
तब तुम कागज पर
नहीं लिख पाओगे
सत्यम , शिवम, सुन्दरम!
देवी-देवताओं के वंशज तुम
हो जाओगे लूले लंगड़े और अपाहिज
जो जीना पड़ जाय युगों-युगों तक
मेरी तरह ?
तब तुम क्या करोगे

- ओमप्रकाश वाल्मीकि

मुझे कदम-कदम पर

मुझे
कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बांहें फैलाए!
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ,
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने....
सब सच्चे लगते हैं,
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए!
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर
में
चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी
में
महाकाव्य पीडा है,
पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता
हूँ,
इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ,
अजीब है जिंदगी!
बेवकूफ बनने की खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ,
और यह देख-देख बडा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ...
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत.... स्वायत्त हुआ जाता है।
कहानियां लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहां जरा खडे होकर
बातें कुछ करता हूँ
....
उपन्यास मिल जाते ।

मुक्तिबोध



गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

यदि मेरे मरने के बाद

मेरे बारे में 
बड़ी आसानी से 
लिखा जा सकता  
मैं पागलों की तरह जिया
मैंने बिना भावुकता के 
चीज़ों को प्यार किया
मुझे कभी भी 
ऐसी कोई लालसा नहीं रही
जिसे मैं पूरा न कर पाया
क्योंकि
मैं कभी अँधा नहीं हुआ.

- अलवेर्तो काईरो (पुर्तगाल)

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

किताबें झांकती हैं
बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनो अब मुलाकाते नहीं होती
जो शामे इन की सोबत में कटती थी
अब अक्सर
गुज़र जाती है कंप्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती है किताबें...
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गयी है
बड़ी हसरत से तकती है
जो कदरें वो सुनती थी !
की जिन के 'सैल' कभी मरते नहीं थे
वो कदरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थी
वह सारे उघडे - उघडे हैं
कोई सफहा पलटता हूँ
तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे तुण्ड लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इस्तालाहें हैं
जो मिटटी के सिकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूफ़ कर डाला
जुबां पे जायका आता थो जो
सफ्हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह -ब - खुलता चला जाता है परदे पर
कीताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे,
छूते थे ज़बीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में
मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका अब क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगें
- लेखक गुलज़ार
(रात पश्मीने की

शनिवार, 31 जनवरी 2009

सन् ४७ को याद करते हुए - केदारनाथ सिंह

तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदाननाथ सिंह?
गेहुँए नूर मियाँ
ठिगने नूर मियाँ
रामगढ़ बाजार से सुर्मा बेच कर
सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँ
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?

तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हे याद है शुरु से अखिर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़ घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गए थे नूर मियाँ?
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ हैं
ढाका
या मुल्तान में?
क्या तुम बता सकते हो?
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में?
तुम चुप क्यों हो केदाननाथ सिंह?
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?

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शहर में रात - केदारनाथ सिंह

बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
हैं उलझ गए जीने के सारे धागे
यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ
कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ
इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ
जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें